छप्पन भोग का रहस्य

डॉ. शारदा मेहता

भारतीय संस्कृति में प्रत्येक परिवार में लगभग षड़रस युक्त भोजन बनाया जाता है। ये परिवार के सदस्यों के लिए सुपाच्य, शक्तिवर्धक तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाला होता है। इन षड़रसों के नाम हैं- १. मधुर, २. अम्ल, ३. लवण, ४. कटु, ५. तिक्त और ६. कषाय। भोजन के आवश्यक तत्व कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, विटामिन तथा खनिज लवण ये सभी इस भोजन में निहित हैं। इस भोजन को बनाने में पवित्रता तथा स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। खाद्य सामग्री की शुद्धता भी अति आवश्यक होती है।

मंदिरों में छप्पन भोग परम्परा का निर्वहन बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ किया जाता है। महिलाएँ अपने-अपने घरों से भोग सामग्री बना कर लाती हैं। भोग लगाया जाता है। समाज के सदस्य सपरिवार इस कार्यक्रम में सम्मिलित होते हैं। पूजा आरती करते हैं। छप्पन भोग प्रसाद का वितरण किया जाता है। द्वारकाधीश मंदिर, श्रीनाथ जी मंदिर तथा अन्य मंदिरों में बड़ी संख्या में भक्तजन एकत्रित होकर छप्पन भोग कार्यक्रम का सफलतापूर्वक संचालन करते हैं। छप्पन भोग के सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण से सम्बन्धित कई कथाएँ प्रचलित हैं।

एक बार भारी वर्षा होने से गोप गोपियाँ तथा गौधन अत्यधिक परेशान थे। श्रीकृष्ण ने गोवर्द्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी ऊँगली से उठा लिया। अतिवृष्टि से बचने के लिए सभी पर्वत के नीचे खड़े हो गए। यह क्रम सात दिनों तक चला। सभी भूख से व्याकुल हो रहे थे। आठवें दिन जब वर्षा रूकी तो सभी बाहर निकले। माता यशोदा तथा ब्रजवासियों ने इन सात दिनों की भोज्य सामग्री बनाई। तभी से छप्पन भोग परम्परा चली आ रही है।

दूसरी कथा के अनुसार माता यशोदा कृष्ण भगवान को दिन में आठों पहर भोजन खिलाती थी और हर बार भिन्न-भिन्न प्रकार की भोजन सामग्री बनाती थी। इस कारण छप्पन भोग परम्परा प्रारम्भ हुई।

तीसरी कथा के अनुसार भगवान कृष्ण गोलोक में राधाजी के साथ अष्टदल कमल पर बैठते थे। कमल की तीन परतें थीं। प्रथम परत में आठ पँखुड़ियां थीं। प्रत्येक पँखुड़ी पर एक-एक सखी बैठती थीं। द्वितीय परत पर सोलह पंखुड़ियाँ थी। उन पर सोलह सखियाँ बैठती थीं। तृतीय परत पर बत्तीस पँखुड़ियों पर बत्तीस सखियाँ बैठी थीं। इस प्रकार कुल ०८+१६+३२=५६ सखियों के सम्मान में छप्पन भोग लगाने की परम्परा का निर्वहन होता है। इस भोजन से सभी सखियाँ तृप्त हो जाती थीं।

चौथी कथा के अनुसार श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने के लिए गोपियों ने यमुना नदी में एक माह तक प्रात: वेला में स्नान किया तथा माँ कात्यायिनी का पूजन अपनी मनोकामना को पूर्ण करने के लिए किया। श्रीकृष्ण ने उन्हें इस मनोरथ पूर्ति का आशीर्वाद भी दे दिया। गोपियों ने उसी की खुशी में छप्पन प्रकार के सुस्वादु भोजन निर्मित कर श्रीकृष्ण को भोग लगाया।

इन सभी कथाओं के आधार पर यह प्रतीत होता है कि छप्पन भोग लगाने की परम्परा भगवान श्रीकृष्ण के समय से प्रारम्भ हुई है। सनातन परम्परा में हमारे प्रत्येक घर में प्रतिदिन शुद्धतापूर्वक जो भोजन निर्मित किया जाता है उसका पूजन के पश्चात थाली परोस कर नैवेद्य लगाया जाता है, उसके पश्चात् ही घर के सदस्य भोजन ग्रहण करते हैं। भगवान के भोग में प्याज, लहसुन का प्रयोग वर्जित है। पवित्रता भी अति आवश्यक है। किसी कारणवश घर में भोजन न बनने पर भगवान को दूध, फल, मेवे तथा मिठाई का नैवेद्य लगा दिया जाता है।

श्रावण मास, श्रीगणेश चतुर्थी के दस दिवसीय कार्यक्रम तथा मातृशक्ति पूजन नवरात्रि में भी विभिन्न मंदिरों में छप्पन भोग लगाए जाते हैं। धर्म प्रेमी श्रद्धालु तन मन धन से इस कार्यक्रम में बड़ी उमंग से सहभागी बनते हैं।

मन्दिरों में छप्पन भोग में बनने वाले समस्त खाद्य पदार्थ भारतीय भोजन के षड़रस पर आधारित ही हैंं। इनमें मीठा, नमकीन, तीखा, खट्टा, कसैला, कड़वा सभी रस का सम्मिलन हो जाता है जो मानव मात्र को स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक है। विभिन्न प्रकार की मिठाइयाँ, तरह-तरह के नमकीन, चटपटी शाक भाजी, भिन्न-भिन्न प्रकार के रायते, कढ़ी, अलग-अलग प्रकार की चटनियाँ, अचार, पापड़ दाल-चावल सभी पौष्टिकता से भरपूर भोजन के आवश्यक तत्व से परिपूर्ण हैं।

India Edge News Desk

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